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भोपाल37 मिनट पहलेलेखक: आशीष उरमलिया

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“मैं 13 साल की थी। दिखने में लड़का, लेकिन अंदर से पूरी लड़की। एक दिन घर पर कोई नहीं था। मैं लड़कियों की तरह तैयार हो गई। मां की साड़ी पहन कर फिल्मी गाने पर डांस करने लगी। उसी वक्त पापा घर आ गए। बिना कुछ बोले उन्होंने मेरे बाल पकड़े और घसीट-घसीट कर मारा। मैं आए दिन पिटती थी। वजह थी मेरा किन्नर पैदा होना। स्कूल गई, तो लड़कों ने मुझे हिजड़ा बुलाया। भद्दे कमेंट किए। मारपीट करते थे। वो मुझे जबरदस्ती पकड़ लेते थे। गंदी हरकतें करते थे। मैं डरी, सहमी, मेंटली डिस्टर्ब भी हुई, लेकिन हारी नहीं थी।”

ये शब्द हैं… मध्यप्रदेश में सरकारी नौकरी पाने वाली पहली किन्नर संजना सिंह के। संजना अब संन्यासी किन्नर कहलाती हैं। दो दिन पहले यानी 22 अप्रैल 2023 को निर्वाचन आयोग ने संजना को मध्यप्रदेश का स्टेट ऑइकन भी बना दिया है। हाल में सरकार ने किन्नरों को OBC कैटेगरी में शामिल करने का फैसला लिया। संजना इसके विरोध में हैं। दैनिक भास्कर ने संजना की जिंदगी के अनछुए पहलू जाने।

संजना ने बताया कि किन हालात में उन्हें घर छोड़ना पड़ा। 7 साल गुमनामी भरी जिंदगी जीने के बाद वो किन्नरों की मंडली में कैसे शामिल हुईं? उन्हें बधाई मांगने से परहेज क्यों है? इतने स्ट्रगल के बाद कैसे हाईकोर्ट में नौकरी हासिल की? सरकार ने उन्हें स्वच्छ भारत मिशन का ब्रांड एंबेसडर क्यों बनाया? आइए, संजना की स्ट्रगल की कहानी पर जानते हैं, उन्हीं की जुबानी…

पैदाइशी किन्नर थी, 5वीं में लड़कों ने हिजड़ा कहा, तब पता चला मैं क्या हूं

संजना ने बताया कि 4 साल की थी, तब मैंने स्कूल जाना शुरू किया। स्कूल में लड़के-लड़कियां दोनों पढ़ते थे। मैं चचेरी बहन के साथ स्कूल जाती थी। बहन जो करती थी, वही मैं भी करती थी। वो अपने लिए जो कपड़े पसंद करती थी, वैसे ही कपड़े मैं भी पसंद करती थी। इस उम्र में बच्चे लैंगिक आधार पर खुद की पहचान को नहीं समझ पाते, लेकिन उनका रवैया वैसा ही होता है, जैसे वो होते हैं। पढ़ाई करते-करते मैं थोड़ा बड़ी हुई। मेरी चाल-ढाल, बोलने का तरीका लड़कियों की तरह था, लेकिन मुझे इस बात का एहसास नहीं था। मुझे याद है… पांचवीं कक्षा में स्कूल के लड़कों ने मुझे हिजड़ा, छक्का बुलाना शुरू किया था। मुझको देखते ही भद्दे-भद्दे कमेंट करते थे। तब मुझे अहसास हुआ कि मैं आम इंसान नहीं हूं। ना मैं औरत हूं और ना आदमी हूं। एक साल तक मैं स्कूल में लड़कों का ये टॉर्चर झेलती रही। खुद को अकेला और अलग महसूस करने लगी थी।

पिता पुलिसवाले थे, अपराधियों की तरह मेरे बाल पकड़ कर घसीटते

मेरे पैदा होने के कुछ सालों के भीतर ही माता-पिता को पता चल गया था कि मैं किन्नर हूं। वो समाज के डर से इस बात को सबसे छिपाते थे। मेरे पिता पुलिस में थे। उन्हें मेरा किन्नर होना पसंद नहीं था। वो मुझे एक लड़के की तरह देखना चाहते थे। मेरा शरीर लड़कों की तरह था, लेकिन मैं खुद को एक लड़की मानती थी। मुझे लड़कियों की तरह कपड़े पहनना, सजना-संवरना पसंद था। ये बात पिता को मंजूर नहीं थी। वो मुझे ऐसा करने को मना किया करते थे। मैं उनकी बात नहीं मानती थी, तो मेरे साथ आए दिन मारपीट होती थी।

एक बार घर पर कोई नहीं था, तो मैने मां की साड़ी पहनी और गाने बजाकर नाचने लगी, तभी अचानक पापा आ गए। उस दिन जो मेरी पिटाई हुई, मुझे अभी तक याद है। उन्होंने मेरे बाल पकड़े और घसीट-घसीट कर मारा। मैं सिलाई मशीन के बीच में जाकर फंस गई थी। वो कहते थे, मेरा चाल चलन ठीक नहीं है। मैं उनकी इज्जत नीलाम करने को पैदा हुई हूं। मां भी मेरा साथ नहीं देती थी। वो मुझे अक्सर ताने मारती थी। कहती थी कि तुझको जन्म देकर नसीब फूट गए। पिता के मारते वक्त कभी उन्होंने बचाव नहीं किया। दरअसल, दोनों समाज के दबाव में थे।

दरअसल, मेरा जन्म भोपाल में ही हुआ है, इसलिए मैं यहीं वापस आई। पिता पुलिस में थे। मम्मी सरकारी प्रेस में काम करती थी। हम 5 भाई बहन हैं। एक बड़ा भाई है। छोटे भाई की तीन साल पहले मौत हो गई है। 2 बहनें भी हैं। दोनों की शादी हो चुकी है। वैल सेटल्ड हैं। अब मेरी परिवार वालों से बात नहीं होती। बहनों से कभी-कभी हो जाती है, बस।

जबरदस्ती बॉयज स्कूल में डाला गया, हर दिन रेप जैसा फील आया

पढ़ने में दिल लगता था। साथ पढ़ रहे बच्चों के और स्कूल के टीचरों के तमाम तरह के टॉर्चर झेलने के बाद भी मैं लगातार स्कूल जाया करती थी। 8वीं की पढ़ाई पूरी हुई। पिता ने मुझे बॉयज स्कूल में डालने का फैसला लिया, ताकि मेरे अंदर लड़कों जैसे गुण आएं। 9वीं में मेरा एडमिशन बॉयज स्कूल में करा दिया गया। वहां जाने पर मेरी हालत ठीक वैसी ही हालत थी, जैसी हजारों लड़कों के बीच किसी एक अकेली लड़की की होती है।

शरीर से तो लड़के जैसी दिखती, लेकिन मैं लड़की थी। लड़कों के साथ इनसिक्योर फील करती थी। उनसे दूर रहती थी। इस वक्त तक मैं वयस्क हो चुकी थी। बॉयज स्कूल में जाने के बाद मेरे साथ जो हुआ, वो कभी भूला नहीं जा सकता। वो सब एक डरावने सपने जैसा है। वहां लड़के मुझे आंख मारते। बोलते- अरे, आओ, मेरे साथ बैठो, यहां बैठो, मेरी गोद में बैठो। वे लोग मुझे अपने पास बिठाकर अपना प्राइवेट पार्ट दिखाते थे। यहां तक कि वॉशरूम में मेरे पीछे आ जाते थे। मेरी बाजू पकड़ कर खींचते थे। स्कूल में मेरा चलना-फिरना तक मुश्किल हो गया था।

एक-एक दिन भारी होता था। मैं इतनी डरी हुई रहती थी कि ये सब किसी से बता भी नहीं पाती थी। एक बार स्कूल टीचर से शिकायत करने की हिम्मत जुटाई, तो उन्होंने सबके सामने उल्टा मुझे ही डांटा। कहा कि लड़कियों जैसी हरकत करोगे, तो यही होगा। अपनी हरकतें सुधारो। स्कूल में मुझे हर दिन ऐसा फील आता था, जैसे मेरा रेप हो रहा हो। मैं लगभग पागल हो चुकी थी। एक दिन तंग आकर मैंने स्कूल जाना बंद कर दिया।

पिता की मौत के बाद मां ने घर से निकाला, 7 साल गुमनामी में काटे

मैं स्कूल बंक करके पार्क या मार्केट कहीं भी चली जाती थी। इसी बीच, मेरी जान पहचान मेरी बिरादरी वालों यानी किन्नरों से हो गई। मैं हर रोज उनसे मिला करती थी। मुझे उनके साथ अच्छा लगता था। वो बिल्कुल मेरे जैसे ही थे। धीरे-धीरे वो अच्छे दोस्त बन गए। मैं उनके साथ अपनी परेशानी शेयर करती थी। वो भी मुझे समझते थे। उन्होंने मुझे घर और समाज छोड़ने की सलाह दी। मैं बहुत ज्यादा प्रताड़ित हो चुकी थी। अब मेरे सामने दो ही विकल्प थे। घर या फिर मेरी खुशी। मैंने खुशी चुनी।

साल 1999 में एक कार एक्सीडेंट में पिता की मौत हो गई। कुछ दिन बाद घर पर मेरे साथ और भी ज्यादा बुरा बर्ताव होने लगा। दरअसल, मेरे भाई बड़े हो गए थे। अब उन्होंने भी मुझे प्रताड़ित करना शुरू कर दिया था। मैं ज्यादातर वक्त अपने समाज के लोगों के साथ ही रहती थी। इसे लेकर घर में झगड़े होने लगे। ये सब इसलिए हो रहा था, क्योंकि समाज में उनकी बेइज्जती हो रही थी। मैं भी नहीं चाहती थी कि मेरी वजह से उनको परेशान होना पड़े।

वो मुझे बधाई मांगने के लिए भेजते थे, जो मुझे पसंद नहीं था

मेरे लिए विदिशा के किन्नर डेरे का एक्सपीरियंस भी नया था। वो मुझे बधाई मांगने के लिए भेजते थे, जो कि मुझे हरगिज पसंद नहीं था। मैं पढ़ना चाहती थी। मुझे सही-गलत कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं विदिशा में खुद को एडजस्ट नहीं कर पाई। वापस भोपाल आ गई। एक सस्ते किराए वाला कमरा ढूंढा। साल 2007 तक गुमनामी की जिंदगी बिताई। ना किसी से मिलती थी। ना ही किसी से बात करती थी। हां, इस बीच मैंने प्राइवेट से 10वीं और 12वीं की पढ़ाई पूरी जरूर कर ली थी।

बधाई मांगना मजबूरी थी, फिर एक NGO ने जिंदगी बदल दी

साल 2006-2007 तक मेरी हालत ऐसी हो गई थी कि मेरे पास कमरे का किराया भरना तो दूर, खाने तक के पैसे नहीं थे। फिर में भोपाल के मंगलवारा गई, जहां मेरे समाज के लोग रहते थे। वहां किन्नरों के कई डेरे हैं। वहां जाकर मैंने किन्नर गुरु हाजी सुरैया नायक से दीक्षा ली। उन्होंने मेरा बहुत सपोर्ट किया। वहां रह कर मैंने किन्नरों के साथ बधाइयां मांगनी शुरू की। मेरी रोजी-रोटी चलने लगी। इसी बीच, मेरी मुलाकात एक NGO के अफसर से हुई। उन्होंने मुझे और मेरी आपबीती को समझा। NGO (गैर सरकारी संगठन) के कामकाज के बारे में बताया। NGO किन्नर समाज के हेल्थ रिलेटेड इश्यूज पर काम करता था। सब समझने के बाद मैंने NGO में नौकरी शुरू कर दी।

NGO के साथ मैंने एलजीबीटी (LGBTQ) और किन्नर समाज में एड्स को लेकर काम किया। शुरुआत में मुझे वहां भी कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा। लंच टाइम में साथ काम करने वाले दबी जुबान में मेरे बारे में बातें करते थे। मुंह पर हाथ लगाकर हंसते थे। देख कर ताली बजा कर चिढ़ाते थे। ये सब देख कर मुझे रोना आ जाता था। मैंने वहां भी जाना बंद कर दिया। 15 दिन नहीं गई। फिर NGO के डायरेक्टर के समझाने के बाद में पूरे दमखम से वापस आई। सिर्फ काम पर ध्यान दिया। किन्नर समाज के लोगों को जागरूक और शिक्षित करने का काम किया।

समाज के लोगों को NGO के साथ जोड़ा। उनकी काउंसिलिंग की। उनके हेल्थ इश्यूज को दूर किया। वो अपना इलाज कराने डॉक्टरों के पास जाते थे, तो भेदभाव होता था। हमने इस भेदभाव को खत्म करने का काम भी किया। सामान्य समाज हमें कुछ समझता ही नहीं था। हमें इंसान ही नहीं समझा जाता था, इसलिए हम समाज के लोगों को भी किन्नरों के प्रति जागरूक करने काम किया। उनको समझाया कि किन्नरों के अंदर भी आत्मा होती है। फीलिंग्स होती हैं। दर्द होता है।

एलजीबीटी (LGBT) यानी लेस्ब‍ियन (LESBIAN ), गे (GAY), बाइसेक्सुअल (BISEXUAL) और ट्रांसजेंडर (TRANSGENDER) कहते हैं। वहीं, कई और दूसरे वर्गों को जोड़कर इसे क्व‍ियर (Queer) समुदाय का नाम दिया गया है, इसलिए इसे LGBTQ भी कहा जाता है।

सरकार ने स्वच्छता मिशन का ब्रांड एंबेसडर बनाया

2009 में मैंने किन्नरों के लिए काम करने के लिए संस्था बना ली। मेरी संस्था इस मुद्दे पर काम करने वाली मध्यप्रदेश की पहली संस्था थी। मेरे प्रोजेक्ट्स में डेरे से लोग आने लगे। काम को सराहने लगे। धीरे-धीरे शोहरत बढ़ने लगी। साल 2016 में मेरे पास जिला पंचायत की तरफ से प्रस्ताव आया कि आपको स्वच्छता के लिए भी काम करना है। मैं समाजसेवा से जुड़े किसी भी काम के लिए तैयार रहती थी। मैंने तुरंत हां कह दिया। सरकार के साथ काम करने का ये पहला एक्सपीरियंस था।

मुझे 15 ग्राम पंचायतों की जिम्मेदारी मिली। मैंने किन्नर समाज के लोगों के साथ मिलकर 15 पंचायतों को खुले में शौच से मुक्त कराया। स्वच्छता के लिए बेहतर काम किया। हम लोग गाना गाकर स्वच्छता के बारे में बताते थे। केंद्र सरकार ने मेरे गीत को विभाग की किताब में शामिल किया। ये पहला मौका था, जब किन्नरों ने आम लोगों के भले के लिए बड़े स्तर पर कुछ किया था। इससे समाज में पॉजिटिव मैसेज गया। प्रदेश सरकार ने स्वच्छता अभियान ब्रांड एंबेसेडर बनाया, तो मुझे सुपर स्टार अमिताभ बच्चन के साथ भी मंच साझा करने का मौका मिला था।

सरकार को नौकरी देनी पड़ी, बिना नौकरी के भी बराबर काम किया

किन्नर समाज के बड़े लोग लगातार सरकार से किन्नरों को समाज के साथ मुख्यधारा से जोड़ने की मांग करते रहे हैं। इसे लेकर केंद्र सरकार ने कई योजनाएं बनाईं। इसी बीच, साल 2019 में ट्रांसजेंडर एक्ट भी बना। इन्हीं पॉलिसी को फॉलो करते हुए मध्यप्रदेश सरकार ने भी किन्नर समाज के उत्थान के लिए काम शुरू किया। स्वच्छ भारत मिशन में मेरे अच्छे काम के बाद मीडिया में सुर्खियां मिलीं। फिर जिला पंचायत की तरफ से मेरे नाम को रेफर किया गया।

मैं मध्यप्रदेश की पहली किन्नर बनी, जिसे जिला विधि सेवा प्राधिकरण में पैरा लीगल वॉलिंटियर के तौर पर नियुक्त किया गया। इसके बाद साल 2019 में मुझे डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के सोशल जस्टिस डिपार्टमेंट टेलीफोन ऑपरेटर और एक पीए के तौर पर नियुक्ति मिली। यहां मुझे आउटसोर्स बेस पर रखा गया था। मैं समाजसेवा के काम में लगी रहती थी। नौकरी को समय नहीं दे पाती, इसलिए उस वक्त मैंने नौकरी लेने से मना भी किया था। फिर किन्नर समाज के उत्थान को ध्यान में रखते हुए मैंने नौकरी जॉइन कर ली, ताकि अन्य किन्नरों के पास भी मैसेज जाए कि हम सामान्य जीवन जी सकते हैं। इससे मुझे मंच मिला। नाम मिला। सम्मान मिला। मध्यप्रदेश में ज्यादा से ज्यादा लोग मुझे जानने लगे। मुझे याद है… जब मैं कोर्ट जाती थी, तो देखती और सुनती थी कि पढ़े-लिखे वकील कानाफूसी करते थे कि अब हिजड़े कोर्ट चलाएंगे। हालांकि उनकी बातों पर ध्यान ना देते हुए मैं आगे बढ़ती गई।

इन दिनों में सोशल जस्टिस डिपार्टमेंट की तरफ से रिलीफ में हूं। फिलहाल, डिपार्टमेंट मुझे किन्नर समाज से जुड़े मुद्दों की मीटिंग्स के लिए बुलाता है। सामाजिक कार्यों से टाइम ना मिल पाने से शायद मैं नौकरी को आगे कंटीन्यू ना करूं। किन्नर समाज के जो नियम हैं, उसमें नौकरी करने की अनुमति नहीं है। उनका मानना है कि हमारा काम सिर्फ बधाई मांग कर खाना है, लेकिन मैं किन्नर समाज को लोगों से कहूंगी। बढ़-चढ़ कर समाज से साथ जुड़ने का काम करें। मैं भले ही आगे नौकरी ना करूं, लेकिन बधाई मांग कर नहीं खाऊंगी। हालांकि समाज में अभी भी खास सुधार नहीं आया है। मुझे आज भी किन्नर होने का दंश झेलना पड़ता है। ये दाग शायद ही कभी ना मिटे।

समाज सुधरे, तो मंगलवारा-बुधवारा जैसी जगहों की जरूरत ही ना पड़े

आज भोपाल में मंगलवारा, बुधवारा और इतवारा जैसी जगहें हैं। ये जगहें किन्नरों के डेरों के लिए भी जानी जाती हैं। अगर समाज जन्म से किन्नर पैदा हुए बच्चों को स्वीकार करे, तो उन्हें प्रताड़ित नहीं होना पड़ेगा। दर-दर भटकना नहीं पड़ेगा। मंगलवारा, बुधवारा में मौजूद डेरों को ठिकाना नहीं बनाना पड़ेगा। ऐसे बच्चों को शुरुआत से स्वीकार्यता मिलनी चाहिए। उन्हें अच्छी शिक्षा और अच्छे संस्कार के साथ आम बच्चों की तरह पालना चाहिए। ये बदलाव समाज में रह रहे लोग ही ला सकते हैं।

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