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ऋषिकेश कुमार, अभिमन्यु सिंह (डिंडौरी)एक घंटा पहले

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कचरा गाड़ी, हाथ ठेला, खाट, बाइक और अब थैला। डिंडौरी में नवजात बेटे का शव थैले में ले जाने के दृश्य ने एक बार फिर सरकारी सिस्टम की नाकामी सामने ला दी। आखिर एक पिता को इस तरह अपने बच्चे का शव क्यों ले जाना पड़ा? बच्चे के शव को थैले में रखकर किस तरह पिता ने जबलपुर से डिंडौरी तक का सफर तय किया?

दैनिक भास्कर ने पड़ताल कर जाना तो मजबूरी, बेबसी की दर्दनाक कहानी सामने आई।

बेबस पिता का नाम है सुनील धुर्वे। उनका दर्द यूं सामने आया- वो हमारे लिए कलेजे का टुकड़ा था। हम जानते हैं कि कैसे आंसुओं को पत्थर बनाकर अपने बच्चे की लाश को झोले में रखकर सीने से चिपकाए रहे।

…लेकिन सरकारी महकमे की अपनी सफाई है, अपने तर्क हैं। जबलपुर के जिस सरकारी मेडिकल कॉलेज में बच्चे का इलाज हुआ, वहां के डॉक्टरों का कहना है कि बच्चे के पिता बच्चे को जिंदा अवस्था में जबरदस्ती उसे डिस्चार्ज कराकर ले गए।

बच्चे के पिता का कहना है कि हम वहां बच्चे का इलाज कराने ले गए थे। उसकी मौत हो गई थी, इसलिए हम उसे लाए। अगर बच्चा जिंदा होता तो उसे थैले में कैसे डाल लेते? हम कम पढ़े लिखे हैं, लेकिन हैं तो इंसान ही।

सिलसिलेवार जानते हैं आखिर पूरा घटनाक्रम कैसे हुआ?

नवजात के बेहतर इलाज के लिए जबलपुर ले गए थे…

सुनील धुर्वे की पत्नी जमना मरावी ने 13 जून को डिंडौरी के जिला अस्पताल में एक बच्चे को जन्म दिया। नवजात का वजन काफी कम था और इसलिए उसे बेहतर इलाज के लिए नेताजी सुभाष मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल जबलपुर के लिए रेफर कर दिया गया। एम्बुलेंस से बच्चे को वहां भेजा गया। मगर बच्चा काफी कमजोर होने की वजह से बचाया नहीं जा सका और अगले ही दिन 14 जून को उसकी मौत हो गई।

इसके बाद सुनील ने अस्पताल प्रशासन से वापस घर तक छोड़ने के लिए एम्बुलेंस की मांग की। कई बार गुहार लगाई मगर एम्बुलेंस या शव वाहन कुछ भी उपलब्ध नहीं कराया गया। इसके बाद उसने नवजात के शव को झोले में ही डालकर असप्ताल से चल पड़े।

कंडक्टर को पता न चले इसलिए झोले में डालकर ले गए शव

सुनील और उनका परिवार पेशे से खेतिहर मजदूर है। सुनील की आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि उनके पास बस के किराया देने भर के ही पैसे थे। सुनील के बड़े भाई अघन धुर्वे भी सुनील के साथ ही थे। दोनों ने भास्कर को पूरा घटनाक्रम बताया…

हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि गाड़ी बुक कर ले जा पाते। इसमें हमारे चार-पांच हजार रुपए खर्च हो जाते, जिसके बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे। सबसे पहले हम ऑटो में बैठे और बस स्टैंड आ गए। बस का किराया भी हमने जबलपुर में लोगों से मांग कर इकट्ठा किया था। इसके बाद हम जबलपुर से डिंडौरी जाने वाले बस में बैठ गए।

हमने बच्चे की लाश को झोले में इसलिए रखा था ताकि किसी भी सवारी या फिर कंडक्टर को पता ना चल जाए। हमारे पास यही एक विकल्प था। अगर हम झोले में नहीं ले जाते और किसी को पता चल जाता तो वे हमें बस से उतार देते।

जबलपुर से डिंडौरी की दूरी लगभग 150 किलोमीटर है। हम लगभग चार घंटे का सफर तय करके डिंडौरी पहुँचे। रास्ते भर हम इस बात को लेकर घबरा रहे थे कि कहीं किसी सवारी या कंडक्टर को यह बात पता ना चल जाए कि थैले में बच्चे की लाश है। रास्ते भर सुनील गुमसुम बैठा रहा। उसका दिल रोता रहा, लेकिन आंखों में आंसू नहीं आने दिए। बस डिंडौरी पहुंचने का इंतजार करते रहे। यही सोचते रहे कि कब डिंडौरी आए और हम बस से उतरे।

एक मां जो अपने नवजात का बस मृत शरीर देख सकी

नवजात की मां जमना बाई अभी भी डिंडोरी के जिला अस्पताल में भर्ती है। सवाल पूछते ही वो खुद को संभाल नहीं पाई और सिसक उठी। एक मां जिसका बच्चा उसके सामने तो जिंदा गया था, मगर अंतिम बार उसे तब देखा जब लोग अंतिम संस्कार के लिए ले जा रहे थे। उन्होंने बताया कि यहां डिंडौरी से जबलपुर ले जाने का उन्हें पता है। 108 नंबर एम्बुलेंस से लेकर गए थे। इसके बाद का मुझे कुछ पता नहीं था। जब बच्चे का अंतिम संस्कार करने के लिए लोग ले जा रहे थे तब मुझे ये सब बात पता चली। इतना बोलते ही वो सिसक-सिसककर रोने लगीं।

डॉक्टर बोले- मना किया फिर भी बच्चे को ले गए

नवजात को 13 जून को जबलपुर मेडिकल कॉलेज के सिक न्यूबॉर्न केयर यूनिट में भर्ती कराया गया था। डॉ संजय मिश्रा के अनुसार नवजात को 8-9 घंटे तक वहां भर्ती रखा गया मगर अचानक से बच्चे के पिता ने डिस्चार्ज करने को कहा। फिर भी हमारी पूरी कोशिश रही कि बच्चे का इलाज जारी रखें, क्योंकि बच्चा अंडरवेट था और डिस्चार्ज करना रिस्की था।

बच्चों के इलाज के लिए मेडिकल कॉलेज से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती, इसलिए डॉक्टर्स ने उनकी काउंसिलिंग भी की। मगर परिजन जब बिल्कुल भी मानने की स्थिति में नहीं होते तो हमारे पास आखिरी विकल्प डिस्चार्ज ऑन रिक्वेस्ट होता है। इसमें परिजन डिस्चार्ज के दौरान लिखते हैं कि अगर इसके बाद मरीज को कुछ भी होता है तो ये अस्पताल की जिम्मेदारी नहीं होगी।

डॉ. मिश्रा के अनुसार उन्होंने खुद वो पेपर देखा, जिसमें बच्चे के पिता ने यह लिखकर अपने हस्ताक्षर किए है। हमने जब उनसे वो लेटर मांगा तो उन्होंने कहा कि यह अस्पताल का कॉन्फिडेंशियल डॉक्यूमेंट है जिसे साझा नहीं किया जा सकता। मगर उन्होंने लेटर में बच्चे के पिता की तरफ से लिखी बात ऑन रिकॉर्ड हमें पढ़कर सुनाया।

डॉ. मिश्रा के अनुसार बच्चे के पिता ने लिखा कि “हमारा बच्चा गंभीर है। डॉक्टर्स ने आगे इलाज जारी रखने की सलाह दी है। मगर हम अपनी मर्जी से बच्चे को ले जा रहे हैं। इसकी सारी जिम्मेदारी अस्पताल प्रशासन की नहीं, हमारी होगी।”

डॉक्टर्स बोले–हो सकता है झाड़ फूंक के लिए ले गए हो

सिक न्यूबॉर्न केयर यूनिट में डॉ. मनिका की टीम उस नवजात का इलाज कर रही थीं। डॉक्टर्स और अधिकारी का मानना है कि अचानक बच्चे के डिस्चार्ज की मांग के पीछे यह कारण भी हो सकता है कि वे झाड़-फूंक से उसका इलाज करवाना चाहते हैं। ऐसा इसलिए कि डिंडौरी में ये चीजें आज भी काफी प्रचलित हैं। परिजनों ने ऐसा कुछ बताया तो नहीं, लेकिन हमें यही कारण समझ आया।

बच्चे के पिता की काउंसिलिंग करने वाले डॉ. ललित मालवीय ने बताया कि बच्चा जब यहां आया था तो एकदम ठंडा पड़ा हुआ था। हमने उसका इलाज शुरू किया तो स्थिति में थोड़ी सुधार की उम्मीद दिख रही थी। मगर हम 24 घंटे भी इलाज नहीं कर पाए थे कि बच्चे के पिता ने डिस्चार्ज करने की जिद शुरू कर दी। हमने उनको यह भी समझाया कि सबसे बेहतर इलाज यहीं हो सकता है। फिर भी अगर आप ले जाना चाहें तो हम आपको एम्बुलेंस दिला देते हैं, आप जहां भी इलाज कराना चाहें वहां जा सकते हैं। उन लोगों ने खुद ही मना कर दिया कि वे अपनी गाड़ी कर ले जाएंगे और फिर डिस्चार्ज ऑन रिक्वेस्ट के बाद बच्चे को लेकर चले गए।

मौत अस्पताल में हो गई थी, हमें जिंदा बताकर सौंपा

नवजात के पिता सुनील धुर्वे के बड़े भाई तब साथ ही थे। वे आरोप लगाते हैं कि डॉक्टर्स ने खुद कहा था कि अब बच्चा बिल्कुल ठीक है और सांस चल रही है। डॉक्टरों ने ही डिंडौरी ले जाने की सलाह दी थी और एम्बुलेंस देने से भी इनकार कर दिया। बच्चे की मृत्यु अस्पताल में ही हो चुकी थी मगर जिंदा बताकर हमें सौंप दिया गया। हम झाड़-फूंक के लिए कहां ले जाते? ऐसा कुछ नहीं था। जब हम इतनी दूर से बच्चे का इलाज कराने आए थे तो डिस्चार्ज कराकर क्यों ले जाते। डॉक्टरों ने हमें जो कहा, हमने वही किया।

वहीं बच्चे के चाचा का कहना है कि बच्चा जब मर चुका था तो डॉक्टरों ने यह कहकर उसे सौंप दिया कि उसकी सांसें चल रही हैं। उसे वापस घर ले जा सकते हैं। बच्चे के पिता का कहना है कि हमारे पास एंबुलेंस या कोई निजी वाहन के लिए पैसे भी नहीं थे, इसलिए तो उसे थैले में भरकर बस में सवार हुए थे।

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बच्चे का शव थैले में रखकर ले जाना पड़ा:जबलपुर मेडिकल कॉलेज से नहीं मिला शव वाहन

जबलपुर में एक पिता को अपने नवजात बच्चे का शव थैले में रखकर ले जाना पड़ा। उसने अस्पताल प्रबंधन से शव वाहन की मांग की, लेकिन प्रबंधन ने वाहन देने से मना कर दिया। ऐसे उसने नवजात का शव थैले में रखा और बस स्टैंड की ओर चल पड़ा। यहां से बस में सवार होकर डिंडौरी पहुंचा। रास्तेभर उसका दिल रोता रहा, लेकिन उसने आंसू नहीं आने दिए। दिल पर पत्थर रखकर बैठा रहा, क्योंकि बस वालों को पता चलता तो उसे उतार सकते थे। आज नवजात का शव यहां नर्मदा किनारे दफनाएंगे। पूरी खबर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

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